SWAPNIL SAUNDARYA e-zine , Vol - 05 , Year - 2017 ' Special Issue '
SWAPNIL SAUNDARYA e-zine
Presents
Diary of a Journalist ......
TARUN VATS
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Published by : Aten Publishing House
स्वप्निल सौंदर्य ई-ज़ीन - परिचय
कला , साहित्य, फ़ैशन व सौंदर्य को समर्पित भारत की पहली हिन्दी लाइफस्टाइल ई- पत्रिका के पँचम चरण अर्थात पँचम वर्ष में आप सभी का स्वागत है .
फ़ैशन व लाइफस्टाइल से जुड़ी हर वो बात जो है हम सभी के लिये खास, पहुँचेगी आप तक , हर पल , हर वक़्त, जब तक स्वप्निल सौंदर्य के साथ हैं आप. गत वर्षों की सफलता और आप सभी पाठकों के अपार प्रेम व प्रोत्साहन के बाद अब स्वप्निल सौंदर्य ई-ज़ीन ( Swapnil Saundarya ezine ) के पँचम वर्ष को एक नई उमंग, जोश व लालित्य के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि आप अपनी ज़िंदगी को अपने सपनों की दुनिया बनाते रहें. सुंदर सपने देखते रहें और अपने हर सपने को साकार करते रहें .तो जुड़े रहिये 'स्वप्निल सौंदर्य' ब्लॉग व ई-ज़ीन के साथ .
और ..............
बनायें अपनी ज़िंदगी को अपने सपनों की दुनिया .
( Make your Life just like your Dream World )
Launched in June 2013, Swapnil Saundarya ezine has been the first exclusive lifestyle ezine from India available in Hindi language ( Except Guest Articles ) updated bi- monthly . We at Swapnil Saundarya ezine , endeavor to keep our readership in touch with all the areas of fashion , Beauty, Health and Fitness mantras, home decor, history recalls, Literature, Lifestyle, Society, Religion and many more. Swapnil Saundarya ezine encourages its readership to make their life just like their Dream World .
Founder - Editor ( संस्थापक - संपादक ) :
Rishabh Shukla ( ऋषभ शुक्ला )
Managing Editor (कार्यकारी संपादक) :
Suman Tripathi (सुमन त्रिपाठी)
Chief Writer (मुख्य लेखिका ) :
Swapnil Shukla (स्वप्निल शुक्ला )
Art Director ( कला निदेशक) :
Amit Chauhan (अमित चौहान)
Marketing Head ( मार्केटिंग प्रमुख ) :
Vipul Bajpai (विपुल बाजपई)
'स्वप्निल सौंदर्य - ई ज़ीन ' ( Swapnil Saundarya ezine ) में पूर्णतया मौलिक, अप्रकाशित लेखों को ही कॉपीराइट बेस पर स्वीकार किया जाता है . किसी भी बेनाम लेख/ योगदान पर हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं होगी . जब तक कि खासतौर से कोई निर्देश न दिया गया हो , सभी फोटोग्राफ्स व चित्र केवल रेखांकित उद्देश्य से ही इस्तेमाल किए जाते हैं . लेख में दिए गए विचार लेखक के अपने हैं , उस पर संपादक की सहमति हो , यह आवश्यक नहीं है. हालांकि संपादक प्रकाशित विवरण को पूरी तरह से जाँच- परख कर ही प्रकाशित करते हैं, फिर भी उसकी शत- प्रतिशत की ज़िम्मेदारी उनकी नहीं है . प्रोड्क्टस , प्रोडक्ट्स से संबंधित जानकारियाँ, फोटोग्राफ्स, चित्र , इलस्ट्रेशन आदि के लिए ' स्वप्निल सौंदर्य - ई ज़ीन ' को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .
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चेतावनी : 'स्वप्निल सौंदर्य - ई ज़ीन ' ( Swapnil Saundarya ezine ) में घरेलु नुस्खे, सौंदर्य निखार के लिए टिप्स एवं विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों के संबंध में तथ्यपूर्ण जानकारी देने की हमने पूरी सावधानी बरती है . फिर भी पाठकों को चेतावनी दी जाती है कि अपने वैद्य या चिकित्सक आदि की सलाह से औषधि लें , क्योंकि बच्चों , बड़ों और कमज़ोर व्यक्तियों की शारीरिक शक्ति अलग अलग होती है , जिससे दवा की मात्रा क्षमता के अनुसार निर्धारित करना जरुरी है.
संपादकीय
नमस्कार पाठकों,
आप सभी के प्रेम व आशीर्वाद के कारण हम भारत की पहली हिंदी लाइफस्टाइल ई -पत्रिका स्वप्निल सौंदर्य ( Swapnil Saundarya ezine ) के चार वर्ष सफलतापूर्वक संपूर्ण कर चुके हैं. अब हम स्वप्निल सौंदर्य ई ज़ीन के पँचम चरण के पथ पर अग्रसर हैं. गत वर्षों में हमने विभिन्न मुद्दों पर पत्रिका के माध्यम से चर्चा की. सौंदर्य की सही परिभाषा को आत्मसात किया. स्वप्निल सौंदर्य एक लाइफस्टाइल ई पत्रिका है पर पत्रिका के कंटेट को सीमित न करते हुए हमने इसके जरिये कई सामाजिक मुद्दों को गहराई से समझा व पूर्ण संवेदनाओं के साथ इन्हें उजागर किया. पत्रिका में हमने कला, फ़ैशन, लाइफस्टाइल, साहित्य से जुड़े तमाम पहलुओं को सम्मिलित किया. गत वर्ष 'लावण्या' नामक नव सेगमेंट के जरिये हमने भारतीय शास्त्रीय संगीत व नृत्य के क्षेत्र में अपनी सफलता का परचम लहरा चुके कुछ नर्तक व नृत्यांगनाओं के प्रेरणादायक जीवन पर प्रकाश डाला.
इसके अतिरिक्त 'सफ़केशन' व 'एसिड' नामक ई- बुक्स द्वारा दिल में कचोटन पैदा करने वाले व मस्तिष्क को झकझोर कर रख देने वाले मुद्दों को आप पाठकों द्वारा भेजी गईं कुछ विशेष कहानियों द्वारा उजागर किया. एक ओर स्त्री विमर्श से संबंधित मुद्दों पर डॉ. आकांक्षा अवस्थी की डायरी के कुछ पृष्ठों को सम्मिलित किया गया तो दूसरी ओर एड्वोकेट प्रणवीर प्रताप सिंह चंदेल व उनके मित्रों द्वारा गरीब व असहाय बच्चों की शिक्षा व बेहतर भविष्य के लिए किए जा रहे प्रयासों को व उनके मिशन एन.जी.ओ की संरचना व कार्यप्रणाली पर विस्तृत जानकारी प्रदान की गई. स्वप्निल सौंदर्य ई-ज़ीन के चतुर्थ वर्ष का शुभारंभ हमने अधिवक्ता मीरा यादव की डायरी ( From the diary of Meera ) के कुछ अनमोल पृष्ठों से किया . नारी व्यथा व सशक्तिकरण को मर्मस्पर्शी व दृढ़्ता के साथ प्रस्तुत करती मीरा की डायरी के ये पृष्ठ सराहनीय थे. इसके अलावा स्त्री का जीवन चुनौतियों का पर्याय जैसे हृदय भेदी मुद्दों व अपने रिसर्च पेपर्स व जर्नल्स के साथ डॉ. आकांक्षा अवस्थी की डायरी निरंतर हमारी ई पत्रिका की शोभा बढ़ा रही है. गत वर्ष पत्रिका की प्रमुख लेखिका व डिज़ाइनर स्वप्निल शुक्ला के खजाने से फ़ैशन व आभूषणों पर उनके प्रकाशित लेखों के संकलन को भी प्रस्तुत किया गया. पुरुषों की जीवनशैली को समर्पित स्वप्निल सौंदर्य ई -ज़ीन की नवीन पेशकश 'दि आइसोलेटेड चैप' ( The Isolated Chap ) को भी सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया गया.
स्वप्निल सौंदर्य ई ज़ीन के इस विशेषांक में हम बड़े ही गर्व के साथ आप सभी के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं एक ऐसी शख्सियत को जिनकी कलम से निकले शब्द सीधे दिल में उतर जाते हैं ,साथ ही इनके तरुण विचार हमारे समक्ष उन प्रेरणात्मक बातों का खज़ाना भी प्रस्तुत करते हैं जिसकी कभी भी किसी को भी निराशा से उबरने हेतु आवश्यकता पड़ सकती है. हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़े बेबाक पत्रकार तरुण वत्स के तरुण विचारों को पत्रिका में सम्मिलित करते हुए हर्ष की अनुभूति हो रही है. आशा करता हूँ , पत्रिका में प्रस्तुत प्रत्येक विशेषांक की तरह ही तरुण वत्स की डायरी ( Diary of a Journalist : Tarun Vats) के ये अनमोल पृष्ठ भी आपके प्रेम और आशीर्वाद के पात्र बनेंगे.
तो बस बने रहिये स्वप्निल सौंदर्य ई -ज़ीन के साथ और बनाइये अपनी ज़िंदगी को अपने सपनों की दुनिया.
- ऋषभ शुक्ला ( Rishabh Shukla )
संस्थापक -संपादक ( Founder-Editor )
Diary of a Journalist .....
अंकल, मुझे छोड़ दो न प्लीज़ !
सात साल का एक बच्चा। सुबह स्कूल जाने के लिए उठता है । चेहरे पर बचपने की चमक, स्कूल ड्रेस पहने, शूज़ भी पॉलिश, बाल भी एकदम कंघी किए हुए सिल्की से, छुटपन की शरारतें करता पापा की बाइक पर बैठता है, मम्मी को बाय बोलता है, मम्मी स्वीट किस करती है और फिर वो निकल जाता है। स्कूल पहुंचता है, पापा घर आते हैं लेकिन ठीक 19 मिनट बाद ही एक खबर भी आती है, कि वो नहीं रहा।
हां, वही जिसे सुबह उसकी मां ने आखिरी बार स्कूल के लिए तैयार किया, जिसके बालों में आखिरी बार कंघी की और जिसके पापा आखिरी बार उसे स्कूल की दहलीज़ तक छोड़कर आए। वो प्रदुम्न अब इस दुनिया में नहीं रहा । वही प्रदुम्न जो स्कूल में एक फौजी बनता था, वही जो अक्सर शरारतें करता था, दोस्तों के साथ खेलता भी था, ड्राइवर अंकल को हाय-बाय भी करता था लेकिन उसी स्कूल बस ड्राइवर ने प्रदुम्न का गला रेत दिया।
गुरुग्राम के एक स्कूल की यह खबर जो भी सुनता है, सिहर सा जाता है। दिल दहल सा जाता लेकिन जो भी हुआ, वो था भी बहुत भयानक । प्रदुम्न के गले पर चाकू से वार किए गए, उसकी गर्दन पर निशान थे। जिसने भी ये किया, वो इंसान की श्रेणी में तो नहीं आता होगा (मामले की जांच जारी है)। शायद प्रदुम्न ने भी अपने हत्यारे से कहा होगा, अंकल मुझे छोड़ दो, प्लीज़।
इसे लेकर एक कविता भी सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है। लेखक तो नामालूम है लेकिन कविता है दिल को छू लेने वाली ..
सवेरे जगा कर नींद से
अपने हाथों नाश्ता खिलाया होगा
छोड़ स्कूल के दरवाजे पिता ने
प्यार से हाथ हिलाया होगा
बेटा मेरा मेहफूज है वहां
माँ ने दिल को समझाया होगा
क्या बीती होगी उस माँ पर
जब फ़ोन स्कूल से आया होगा
भागते हूए स्कूल की तरफ
एक-एक कदम डगमागया होगा
क्या गुजरा होगा दिल पर पिता के
इस हाल में जब उसे पाया होगा
उस जानवर ने जब उसे दबोचा होगा
वो कितना छटपटाया होगा
नाम उसकी जबान पर
माँ बाप का आया होगा
उस मासूम को यू बेरहमी से मारते
क्या एक पल भी ना वो थरथराया होगा
कैसे जियेंगे माँ बाप उसके
ये ख्याल भी ना दिल में आया होगा
बिखर गए होंगे वो बदकिसमत माँ बाप
जब उसे आखिरी बार सीने से लगाया होगा
लौटेगा नहीं कभी वापिस वो
कैसे खुद को समझाया होगा…
- तरुण वत्स ( Tarun Vats )
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पत्रकारों को दलाल बोलने से पहले इसे पढ़ लेना ….
पत्रकारिता आजकल ‘आलोचनात्मक’ हो गयी है. आप सरकार की आलोचना कर लेते हैं तो आप पत्रकार हैं और नहीं कर पाते हैं तो “भैया, कैसे पत्रकार हो?” नया शब्द चला है ‘दलाल’, मतलब पत्रकारों को ‘दलाल’ या ‘चट्टू’ कहने का. पहले ही मान लेता हूं कि हां भैया, इस पेशे के लोगों की वजह से ही ये नाम रख दिया गया है लेकिन बहुत से अभी भी ऐसे हैं, जिन्हें पता ही नहीं कि ‘दलाल’ कैसे बना जाता है. यानि बड़े संस्थानों में काम करने वाले छोटे लाेग, छोटे पत्रकार और निचले पद पर काम करने वाले ‘पत्रकार’, सही में दलाल नहीं होते. ‘कर्मचारी’ होते हैं लेकिन ‘दलाल’ नहीं होते.
थोड़ी सी पुरानी बात है. आईबीएन-7 चैनल से बड़ी तादाद में पत्रकारों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था. अचानक काफी लोगों का जीवन डगमगा गया था. करीब 300 से ज्यादा पत्रकार बाहर कर दिये गये थे. माना जाता है कि ये जो आम आदमी पार्टी वाले आशुतोष जी हैं न, इनकी नौकरी पर भी खतरा मंडरा गया था. मतलब सुनने में आया था लेकिन इनकी नौकरी सुरक्षित रही थी तब, बाद में सर ने पार्टी ज्वाइन कर ली और नेता बन गये थे.
कुछ समय पहले दैनिक जागरण के करीब 300 कर्मचारी (जिसमें पत्रकार भी शामिल थे) जंतर मंतर पर धरने पर बैठे थे. मजीठिया वेज बोर्ड की मांग करने पर कई कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया गया था लेकिन किसी ने कहीं कोई खबर नहीं देखी. न चैनल पर, न अखबार में. सन्नाटा.
राष्ट्रीय सहारा का दिल्ली संस्करण कर्मचारियों की हड़ताल के कारण कई दिनों तक नहीं छपा. तनख्वाह नहीं देने के कारण कर्मचारी हड़ताल पर चले गये. आज भी भटक रहे हैं. कई पत्रकार ऐसे हैं जिन्हें 12 महीनों की तनख़्वाह नहीं मिली है लेकिन कहीं कुछ दिखा. सन्नाटा.
कई मीडिया संस्थानों ने सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश के बावजूद अब तक वेज बोर्ड लागू नहीं किया. बावजूद वह निष्पक्ष-निर्भीक होने का बेशर्म दावा ठोका करते हैं. कहीं कोई खबर नज़र आई, कुछ दिखा. नहीं. सन्नाटा.
शायद बहुत से लोग तो ये जानते भी नहीं होंगे कि वेज बोर्ड क्या है. पत्रकार क्यों इसके पीछे पड़े हैं.
कुछ समय पहले लिखा था कि पत्रकारों की मौत पर किस तरह लोग तो क्या खुद मीडिया संस्थान भी चुप्पी साध लेते हैं. यह पत्रकारिता का अजीब दौर है और ऐसे में मीडिया संस्थानों का अपने पत्रकारों की हत्या तक पर चुप्पी साध लेना बहुत अखरता है. इस मामले में हिन्दुस्तान अखबार के पत्रकार राजदेव रंजन की मौत के बाद उनके लिये पूरी क्षमता के साथ खड़ा होना एक मिसाल कही जा सकती है. जब पहले कभी अखबार पढ़ते थे तो देखते थे कि कहीं छोटी मोटी एक खबर (एक काॅलम) में आ जाती थी कि इन पत्रकार साहब की हत्या हो गयी या कभी किसी की रिटायरमेंट की भी लेकिन तब किसी पत्रकार के मरने पर (रिपोर्टिंग के दौरान) दूसरा संस्थान उस खबर को अपने अखबार या चैनल में नहीं दिखाता था.
मध्य प्रदेश के व्यापमं घोटाले की रिपोर्टिंग करने वाले आज तक के पत्रकार अक्षय सिंह की मौत के बाद जरूर कुछ बदला और बहुत से लोग जागे. लगभग सभी चैनलों और अखबारों में चर्चा हुयी. लोगों ने जाना कि कोई पत्रकार अपनी जान गंवा बैठा.
मैं भी इस पेशे से हूं. न जाने क्यों मुझे लगता है कि अगर कल को मैं भी कहीं भगवान को प्यारा हो गया तो लोग मेरे बारे में चर्चा तक नहीं करेंगे यानि अपने ही पेशे के लोग. मैं तो अक्षय सिंह जैसा नहीं, न ही कोेई बड़ा पत्रकार हूं, एक अदना सा ‘कर्मचारी’ हूं जिसको बहुत कम लोग जानते हैं. इस पेशे का एक बुरा पहलू यह भी है कि हर किसी के वकील बनने वाले पत्रकारों की आवाज़ उठाने वाला कोई नहीं होता और पत्रकार कौम भी ऐसा नहीं करती.
ये मेरी बात नहीं, मेरे जैसे बहुत से लोगों की बात है. हर कोई सपना देखता है ‘बड़ा’ बनने का. नाम कमाने का. पत्रकारिता के जरिये कुछ पहचान बनाने का लेकिन बहुत कम लोग मुक़ाम हासिल कर पाते हैं और बहुत से लोग फिर इसी के जरिये पेट पालते हैं. ये जो पेट पालने वाले हैं न, इनसे जुड़ा होता है एक परिवार. परिवार के लोग. बच्चे. इस पेशे में जब मन मुताबिक नहीं मिलता तो भी चल जाता है लेकिन जब ‘कुछ नहीं’ मिलता तो बहुत दुख होता है. बुरा लगता है. बहुत बुरा. कम से कम इस पेशे से जुड़े लोगों के बारे में तो सोचिये. वो लोग जो ‘छोटे’ होते हैं, तनख्वाह की कोई ‘फिगर’ नहीं होती, सपनों से लबरेज और ऊंची उड़ान की सोचकर इस पेशे में आने वाले लोग. जिनकी पहचान कुछ लोगों तक ही सीमित होती है और सीमित सा होता है उनका दायरा भी. ये सन्नाटा बुरा होता है. बहुत बुरा….
- तरुण वत्स ( Tarun Vats )
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पत्रकार बनने की अधूरी कहानी
बात 17 अगस्त की सुबह की है। हर रोज की तरह ऑफिस आकर जब फेसबुक देखा तो पता चला कि नेटवर्क 18 के करीब 300 मीडियाकर्मियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। दु:ख होना तो लाजिमी था और इसलिए नहीं कि मैं भी उसी फील्ड में अपना करियर बनाने की सोच रहा था, जिसमें इस तरह के तमाम सच देखने पड़ सकते हैं बल्कि इसलिए कि अब उन लोगों का क्या होगा जो एकदम से सड़क पर आ गए। मीडियाखबर और भड़ास दोनों का ही नित्य पाठक हूं तो इस प्रक्रिया के बाद सड़क पर आए पत्रकारों का हाल और अधिक पढ़ने को मिला। हालात इतने बद्तर हैं तो आखिर पत्रकार बनाने की लगातार जो फैक्ट्रियां खुल रही हैं, वो इन नव या भावी पत्रकारों को कहां जगह दिलवाएंगे.? अपने संस्थान खोले हैं तो क्या छोटे-छोटे चैनल भी खुलेंगे जो रोज़ बनने वाले पत्रकारों को उन्हीं चैनलों में रखते रहेंगे.? वैसे, आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि हर बड़े खबरिया चैनलों के अपने मीड़िया प्रशिक्षण संस्थान हैं और अगर नहीं हैं तो बन रहे हैं। मैं भी ऐसे ही एक संस्थान से पढ़ा हूं लेकिन खुशकिस्मती ये रही कि वहां फीस इतनी नहीं थी और सरकारी बैनर था। नहीं तो प्राइवेट संस्थानों में तो बी-टेक से भी ज्यादा फीस ली जाती है। सरकारी बैनर होने के कारण खुद से ही सब कुछ करना पड़ा तो लिखना पढ़ना सीख गए और निरंतर सीख ही रहे हैं।
मुझे याद है जब मैं 12वीं (10+2) की परीक्षा उत्तीर्ण कर अधिकतर दिल्ली वालों की तरह प्रोफेशनल कोर्स की तलाश कर रहा था। हालांकि साइंस स्ट्रीम होने के कारण बी-टेक में एडमिशन लेने की भी कोशिश की थी लेकिन सफल नहीं हो सका। मेरी क्लास के अधिकतर मित्र बी-टेक के लिए तैयार थे। जो सफल उसी वर्ष में हो गए, बेहतर हुआ लेकिन जो नहीं हो पाए, उन्होंने इसके लिए एक साल का गैप लेने के लिए भी अपना माइंडसेट कर लिया था। लग गए और आज उनकी बी-टेक भी हो गई। हर आम आदमी की तरह मेरा भी कॉन्टेक्ट उनसे कुछ महीनों तक ही रहा लेकिन कहीं-कहीं से उनकी खबरें लगती रहीं। इस बीच एक मित्र रवीश का मैसेज भी आया कि वो बी-टेक के लिए तैयार नहीं है और मेरी तरह पत्रकारिता करना चाहता है। मैंने उसे बहुत समझाया। इस शर्त पर माना कि उसके पिताजी ने काफी पैसा लगा दिया और अगर तू इस तरह बीच में छोड़ेगा तो बेकार हो जाएगा। हां, अगर चाहे तो ट्राई कर लियो। उसके पिताजी टीचर हैं तो शायद घर पर भी समझाया होगा तो मान गया और आई.पी यूनिवर्सिटी से बी-टेक कर चुका है। एक मित्र शरद का भी ज़िक्र करना चाहूंगा जिसने डॉक्टर बनने के लिए जद्दोजहद की लेकिन लगातार दो सालों तक ट्राई करने के बाद भी सफल नहीं हो सका। आज सभी कोर्स पूरा कर चुके हैं और कुछ कम्पनीज़ में जगह बना चुके हैं और कुछ प्लेसमेंट का इंतज़ार कर रहे हैं। कहीं मौका लगेगा तो वो भी जगह पा जाएंगे। हां, कुछ को अपने पिताजी के पेशे के सिवाय कुछ अच्छा नहीं लगा और उनके धंधे को आगे बढ़ाने के लिए उसी कारोबार में लग गए। बिना किसी मेहनत के बिजनेसमैन बनने का बेहतर अवसर और कहां मिलता है, हम जैसे स्ट्रगलर्स ये समझ सकते हैं।
मेरी शुरुआत कुछ अलग ही ढंग से हुई। पत्रकारिता के बारे में पूरी तरह से अनजान मैं अपने मित्र अश्वनी की वजह से दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से फॉर्म खरीद लाया और भर दिया। इत्तेफाक था कि क्लीयर भी हो गया और दिल्ली विश्वविद्यालय में जाने का मौका मिल गया। इस बीच दुख हुआ इस बात का कि अश्वनी का क्लीयर नहीं हो सका और उसने दोबारा से 12वीं का फॉर्म ऑपन से भरने की सोच से उसी में लग गया और आजकल इलाहाबाद से ग्रेजुएट होने के बाद वहीं से सिविल की तैयारी कर रहा है। मिलता है तो मैं अपनी भड़ास निकाल लेता हूं.
दिन बीते और मैं कॉलेज जाने लगा । सभी की तरह एकदम अलग माहौल मिला। शुरुआती दिनों में कॉलेज जाने का दिल नहीं करता था। स्कूल के दिनों में इतने बंक..गोल मारे थे कि वही क्लास से बेहतर बाहर का माहौल ज्यादा अच्छा लगता था। याद है अच्छे से कि जब पहली बार क्लास में सीनियर्स इन्टरेक्शन(जिसे कॉलेज वाले “रैगिंग” कहते थे) करने आए थे तो मैं क्लास में नहीं था। खैर, धीरे-धीरे माहौल में फिट होने लगा और क्लास भी अच्छी लगने लगी।
फिर क्लास में भी अच्छे अच्छे वाकये होते रहे और धीरे-धीरे क्लास से प्यार भी हो गया और इसी प्यार की वजह से कॉलेज में रोज़ आना जाना हो गया। अनोखी बात ये रही कि मैं इंग्लिश मीडियम में पढ़ने वाला हिन्दी माध्यम में फिट हो गया और फर्स्ट इयर में कॉलेज ही नहीं यूनिवर्सिटी टॉप कर दी। खैर, इसके पीछे बहुत हद तक “कथादेश” साहित्यिक पत्रिका का श्रेय था। मैं अपनी दोपहर और शाम वहां बिताने लगा था। साहित्यिक भाषा (जो कभी पढ़ने तक का दिल नहीं करता था) उसमें प्रूफ रीडिंग करने लगा था। पत्रकारिता क्षेत्र में पहला अनुभव यही था। इसमें मेरे मित्र रिहान का बड़ा हाथ था क्योंकि बात तो मैंने की थी लेकिन जाने को फोर्स वही करता था। कभी-कभी कामों के पीछे बहुत से लोग होते हैं लेकिन ज़िक्र नहीं हो पाता। ऐसे ही बहुत से लोग मेरी ज़िदगी में भी हैं जिनके बारे में इस कहानी में ज़िक्र नहीं किया लेकिन हर छोटी-मोटी बातों में उनका ज़िक्र होता है। यूनिवर्सिटी टॉप करने के बाद काफी अच्छा लगा लेकिन मुझे फील्ड में जाने की इतनी ज्यादा उत्सुकता थी कि ये सब छोटा लगने लगा और मैं अपने एरिया के लोकल चैनल में जा लगा। हां, इस बीच मेरे सहपाठी अनुग्रह मिश्रा ने मुझे कहा, “मुझे लगता था कि दिल्ली में लोग पढ़ते लिखते नहीं है लेकिन मेरी ये भ्रांति तूने दूर कर दी।” इससे मैं रेस में शामिल भी हो गया था। खैर, लोकल चैनल में करीब दो महीने रहा। मेरे साथ-साथ निहाल सिंह और रिहान भी वहीं थे। तो हम तीनों लगे तो एक साथ नहीं थे लेकिन छोड़ा हम तीनों ने एक साथ ही। अब बताना तो बनता है कि निहाल से मेरी खास मुलाकात यहीं हुई थी। क्लास में बस एक दूसरे को जानते थे लेकिन पहचान यहीं हुई। पीले रंग की “पैशन” बाइक चलाता वो निहाल मेरे खास मित्रों में शुमार हो गया और अपनी छोटी-बड़ी बातों को शेयर करने लगा। मैं उसके बारे में “पहले वाले निहाल के हाल” लिखूंगा तो बुरा मान जाएगा। बस इन्हीं छोटी मोटी बातों, कुछ शिकायतों और रेस की बाजी में दिन बीतते गए। मैं भी बहुत लोगों से मिला, कुछ आए-गए थे, कुछ खास बन गए और कुछ ऐसे कि लिखने बैठूंगा तो 20-25 पेजों मे भी न समा पाएंगे।
“मीडिया इंडस्ट्री में नौकरी करना बहुत मुश्किल होता है।” “ये कहां आ गए तुम.?” “बैंक-वैंक में नौकरी कर लो ।” “लोग ग्लैमर की सोच कर इस इंडस्ट्री में चले आ रहे हैं।” “कोई जान पहचान का है इंडस्ट्री में.?” ऐसे तमाम सवाल और राय सुनने को मिलते रहते हैं अब भी। कुछ बहुत खास होते हैं तो कुछ इंडस्ट्री के लोग भी। हालांकि सभी की मिली जुली राय है। मैं तो अक्सर कहता हूं कि जो पत्रकार दूसरों को हीरो और जीरो बनाता है, किसी के बारे में अपने 1000 शब्दों तक को समर्पित करता है, उसके लिए न तो कोई बोलने वाला होता है और न ही कोई आवाज उठाने वाला। कुछ पत्रकार जरूर 17 अगस्त की घटना के बाद जागरुक हुए और उनके खिलाफ आवाज उठाने को आगे आए। उनमें मुख्यत: मीडिया वेबसाइट चलाने वाले थे। ये देखकर कुछ दिल को तसल्ली मिलती है लेकिन करियर को लेकर इतनी ज्यादा इनसेक्योरिटी फील होती है कि न जाने कहां मौका मिलेगा। अभी पत्रकारिता के क्षेत्र में नया हूं। हालांकि सभी की इस ओर अलग-अलग राय होती है। कुछ मानते हैं कि किसी चैनल में घुसते ही यानि इन्टर्न करने के साथ ही पत्रकारिता में आ गए (मानता हूं आजकल शुरुआत में सभी को करनी पड़ती है)। कुछ का मत है कि किसी संस्थान में अगर मार्केटिंग भी करते हो तो भी पत्रकार हो। कोई एफ.टी.पी पर काम को पत्रकारिता समझते हैं तो कुछ दलाली को पत्रकारिता मानते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो एक अच्छे एंकर या वरिष्ठ पत्रकार के साथ फोटो खिंचाने को ही पत्रकारिता समझ लेते हैं। कुछ ऐसे है जिनके यार-दोस्त मीडिया में हों तो फटाफट अपने वाहन पर “PRESS” लिखवाने में नहीं चूकते । मेरी राय इसमें थोड़ी अलग है, जो फिर कभी बताऊंगा.. इसलिए इस छोटी सी कहानी को “अधूरी कहानी” का नाम दिया क्योंकि अभी भी बहुत से अनछुए पहलुओं को यह पूरी तरह छोड़ गई है।
- तरुण वत्स ( Tarun Vats )
https://tarunvichaar.wordpress.com
दिल्ली विश्वविद्यालय ( Delhi University ) से पत्रकारिता ( Journalism ) में स्नातक और जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय से पत्रकारिता एवं जनसंचार में पी.जी. डिप्लोमा करने के बाद गुरू जंभेश्वर विश्वविद्यालय से हिंदी पत्रकारिता में परास्नातक, तरुण वत्स ( Tarun Vats ) विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं व वेबसाइटस से जुड़े हैं.वर्तमान समय में तरुण नवभारत टाइम्स में वरिष्ठ कॉपी एडिटर के पद पर कार्यरत हैं.
Fight against Breast Cancer
We have two options, medically and emotionally: give up or fight like hell
SWAPNIL SAUNDARYA CHEMO DOLLS
#ChemoDolls :: Bald is beautiful
‘Swapnil Saundarya Label’ is proud to present its exclusive range of chemo dolls which can help in conveying the psychosocial effects of treatment to cancer patients .
Our Label has created Swapnil Saundarya Chemo Dolls with an extremely rare condition where they do not have hair , they went through all their cancer treatments with their chemo, radiation and surgery . These Chemo Doll with the ‘ Fighting Spirit ‘ help to affirm and support the struggles of cancer patients. These dolls are designed to encourage Cancer patients who have to go through chemo therapy and will likely lose their hair. Swapnil Saundarya Chemo Dolls are dolls for children as well as for adults in treatments for cancer.
Doll Designer Swapnil has been very busy making chemo dolls which are simply beautiful and bald ! each with their own removable colorful hat adjoining with the doll’s hand representing the power to fight against the terrible disease Cancer . These dolls are dedicated to all of them battling this awful disease.
Help Swapnil Saundarya Label meet their goal of placing Swapnil Saundarya Chemo Dolls in the arms of all cancer patients who need a hug and to put big smiles on their faces .You can nominate any child with cancer who needs a new best friend Doll and the company will ship his or her new doll with our love and care from Swapnil Saundarya Label.
Doll Designer Swapnil believes that her dolls have the magic to make their own best friends feel super brave and courageous.”Our mission is to provide emotional support to children and adults in treatment for cancer and other serious illnesses through our chemo dolls and Artistic Cards ” she said.
Swapnil Saundarya Chemo Dolls are available at Swapnil Saundarya estore and Rishabh Interiors and Arts :: The e Studio.
'Swapnil Saundarya' For a Cause : FIGHT AGAINST DOMESTIC VIOLENCE & CHILD ABUSE
#StopDomesticViolence
#StopChildAbuse
YES ! I AM BOLD is a collection of paintings by Interior Designer, Painter and Arts Journalist Rishabh that speak out against Domestic violence and Child Abuse.
YES ! I AM BOLD .
Swapnil Jewels
Nothing Less expectable,
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At Swapnil Jewels and Arts , we pride ourselves on creating beautiful and bespoke designer Jewellery , Traditional as well as Contemporary Jewellery , from India which is captivating and a true expression of your style. The intention and goal is to create exclusive jewellery and innovative designs at excellent prices .
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- रचना के साथ आपका पूरा नाम, पता, पिनकोड व पासपोर्ट साइज़ फोटो अवश्य भेजें.
- रचना पर शीर्षक के ऊपर मौलिकता के संबंध में साफ - साफ लिखें अन्यथा रचना पर विचार नहीं किया जाएगा.
- रचना सिंपल फांट ( Font ) में लिखी गई हो .
- रचना भेजते समय अपने बारे में संक्षिप्त ब्योरा जरुर दें . यदि स्वप्निल सौंदर्य ई-ज़ीन के किसी स्थायी स्तंभ के लिए रचना भेज रहे हैं तो उस स्तंभ का शीर्षक लिखना न भूलें.
- प्रत्येक स्वीकृ्त रचना का कॉपीराइट ( सर्वाधिकार ) पत्रिका के कॉपीराइट धारक का है और कोई स्वीकृ्त / प्रकाशित रचना कॉपीराइट धारक से पूर्वलिखित अनुमति लिए बिना अन्यत्र अनुदित , प्रकाशित या प्रसारित नहीं होनी चाहिये.
- स्वप्निल सौंदर्य ई-ज़ीन टीम ( Swapnil Saundarya ezine Team )
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