SWAPNIL SAUNDARYA e-zine Vol -05 , year 2017 , 'SPECIAL ISSUE ' ~ Laavanya
SWAPNIL SAUNDARYA e-zine
Presents
Laavanya
~ लावण्या ~
BHARATANATYAM DANCER
ANAGHA JOSHI
स्वप्निल सौंदर्य ई-ज़ीन - परिचय
कला , साहित्य, फ़ैशन व सौंदर्य को समर्पित भारत की पहली हिन्दी लाइफस्टाइल ई- पत्रिका के पँचम चरण अर्थात पँचम वर्ष में आप सभी का स्वागत है .
फ़ैशन व लाइफस्टाइल से जुड़ी हर वो बात जो है हम सभी के लिये खास, पहुँचेगी आप तक , हर पल , हर वक़्त, जब तक स्वप्निल सौंदर्य के साथ हैं आप. गत वर्षों की सफलता और आप सभी पाठकों के अपार प्रेम व प्रोत्साहन के बाद अब स्वप्निल सौंदर्य ई-ज़ीन ( Swapnil Saundarya ezine ) के पँचम वर्ष को एक नई उमंग, जोश व लालित्य के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि आप अपनी ज़िंदगी को अपने सपनों की दुनिया बनाते रहें. सुंदर सपने देखते रहें और अपने हर सपने को साकार करते रहें .तो जुड़े रहिये 'स्वप्निल सौंदर्य' ब्लॉग व ई-ज़ीन के साथ .
और ..............
बनायें अपनी ज़िंदगी को अपने सपनों की दुनिया .
( Make your Life just like your Dream World )
Launched in June 2013, Swapnil Saundarya ezine has been the first exclusive lifestyle ezine from India available in Hindi language ( Except Guest Articles ) updated bi- monthly . We at Swapnil Saundarya ezine , endeavor to keep our readership in touch with all the areas of fashion , Beauty, Health and Fitness mantras, home decor, history recalls, Literature, Lifestyle, Society, Religion and many more. Swapnil Saundarya ezine encourages its readership to make their life just like their Dream World .
Founder - Editor ( संस्थापक - संपादक ) :
Rishabh Shukla ( ऋषभ शुक्ला )
Managing Editor (कार्यकारी संपादक) :
Suman Tripathi (सुमन त्रिपाठी)
Chief Writer (मुख्य लेखिका ) :
Swapnil Shukla (स्वप्निल शुक्ला )
Art Director ( कला निदेशक) :
Amit Chauhan (अमित चौहान)
Marketing Head ( मार्केटिंग प्रमुख ) :
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'स्वप्निल सौंदर्य - ई ज़ीन ' ( Swapnil Saundarya ezine ) में पूर्णतया मौलिक, अप्रकाशित लेखों को ही कॉपीराइट बेस पर स्वीकार किया जाता है . किसी भी बेनाम लेख/ योगदान पर हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं होगी . जब तक कि खासतौर से कोई निर्देश न दिया गया हो , सभी फोटोग्राफ्स व चित्र केवल रेखांकित उद्देश्य से ही इस्तेमाल किए जाते हैं . लेख में दिए गए विचार लेखक के अपने हैं , उस पर संपादक की सहमति हो , यह आवश्यक नहीं है. हालांकि संपादक प्रकाशित विवरण को पूरी तरह से जाँच- परख कर ही प्रकाशित करते हैं, फिर भी उसकी शत- प्रतिशत की ज़िम्मेदारी उनकी नहीं है . प्रोड्क्टस , प्रोडक्ट्स से संबंधित जानकारियाँ, फोटोग्राफ्स, चित्र , इलस्ट्रेशन आदि के लिए ' स्वप्निल सौंदर्य - ई ज़ीन ' को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .
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चेतावनी : 'स्वप्निल सौंदर्य - ई ज़ीन ' ( Swapnil Saundarya ezine ) में घरेलु नुस्खे, सौंदर्य निखार के लिए टिप्स एवं विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों के संबंध में तथ्यपूर्ण जानकारी देने की हमने पूरी सावधानी बरती है . फिर भी पाठकों को चेतावनी दी जाती है कि अपने वैद्य या चिकित्सक आदि की सलाह से औषधि लें , क्योंकि बच्चों , बड़ों और कमज़ोर व्यक्तियों की शारीरिक शक्ति अलग अलग होती है , जिससे दवा की मात्रा क्षमता के अनुसार निर्धारित करना जरुरी है.
संपादकीय
नमस्कार पाठकों,
आप सभी के प्रेम व आशीर्वाद के कारण हम भारत की पहली हिंदी लाइफस्टाइल ई -पत्रिका स्वप्निल सौंदर्य ( Swapnil Saundarya ezine ) के चार वर्ष सफलतापूर्वक संपूर्ण कर चुके हैं. अब हम स्वप्निल सौंदर्य ई ज़ीन के पँचम चरण के पथ पर अग्रसर हैं. गत वर्षों में हमने विभिन्न मुद्दों पर पत्रिका के माध्यम से चर्चा की. सौंदर्य की सही परिभाषा को आत्मसात किया. स्वप्निल सौंदर्य एक लाइफस्टाइल ई पत्रिका है पर पत्रिका के कंटेट को सीमित न करते हुए हमने इसके जरिये कई सामाजिक मुद्दों को गहराई से समझा व पूर्ण संवेदनाओं के साथ इन्हें उजागर किया. पत्रिका में हमने कला, फ़ैशन, लाइफस्टाइल, साहित्य से जुड़े तमाम पहलुओं को सम्मिलित किया. गत वर्ष 'लावण्या' नामक नव सेगमेंट के जरिये हमने भारतीय शास्त्रीय संगीत व नृत्य के क्षेत्र में अपनी सफलता का परचम लहरा चुके कुछ नर्तक व नृत्यांगनाओं के प्रेरणादायक जीवन पर प्रकाश डाला.
इसके अतिरिक्त 'सफ़केशन' व 'एसिड' नामक ई- बुक्स द्वारा दिल में कचोटन पैदा करने वाले व मस्तिष्क को झकझोर कर रख देने वाले मुद्दों को आप पाठकों द्वारा भेजी गईं कुछ विशेष कहानियों द्वारा उजागर किया. एक ओर स्त्री विमर्श से संबंधित मुद्दों पर डॉ. आकांक्षा अवस्थी की डायरी के कुछ पृष्ठों को सम्मिलित किया गया तो दूसरी ओर एड्वोकेट प्रणवीर प्रताप सिंह चंदेल व उनके मित्रों द्वारा गरीब व असहाय बच्चों की शिक्षा व बेहतर भविष्य के लिए किए जा रहे प्रयासों को व उनके मिशन एन.जी.ओ की संरचना व कार्यप्रणाली पर विस्तृत जानकारी प्रदान की गई. स्वप्निल सौंदर्य ई-ज़ीन के चतुर्थ वर्ष का शुभारंभ हमने अधिवक्ता मीरा यादव की डायरी ( From the diary of Meera ) के कुछ अनमोल पृष्ठों से किया . नारी व्यथा व सशक्तिकरण को मर्मस्पर्शी व दृढ़्ता के साथ प्रस्तुत करती मीरा की डायरी के ये पृष्ठ सराहनीय थे. इसके अलावा स्त्री का जीवन चुनौतियों का पर्याय जैसे हृदय भेदी मुद्दों व अपने रिसर्च पेपर्स व जर्नल्स के साथ डॉ. आकांक्षा अवस्थी की डायरी निरंतर हमारी ई पत्रिका की शोभा बढ़ा रही है. गत वर्ष पत्रिका की प्रमुख लेखिका व डिज़ाइनर स्वप्निल शुक्ला के खजाने से फ़ैशन व आभूषणों पर उनके प्रकाशित लेखों के संकलन को भी प्रस्तुत किया गया. पुरुषों की जीवनशैली को समर्पित स्वप्निल सौंदर्य ई -ज़ीन की नवीन पेशकश 'दि आइसोलेटेड चैप' ( The Isolated Chap ) को भी सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया गया.
स्वप्निल सौंदर्य ई ज़ीन के इस विशेषांक में हम बड़े ही गर्व के साथ आप सभी के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं एक ऐसी शख्सियत को जिन्होंने भरतनाट्यम नृ्त्य के विशिष्ट क्षेत्र में अपनी सफल भागीदारी दर्ज कराई है , जिन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर भरतनाट्यम नृ्त्य के रुप में भारतीय संस्कृ्ति की अनमोल विरासत को संजो कर रखा है और इसे बढ़ावा व प्रोत्साहन देने के लिए अनेकों कार्य भी किए हैं. स्वप्निल सौंदर्य ई ज़ीन के इस विशेषांक के ज़रिये हम आपका साक्षात्कार करा रहे हैं, अद्वितीय प्रतिभा की धनी भरतनाट्यम नृ्त्यांगना अनघा जोशी (BHARATANATYAM DANCER ANAGHA JOSHI ) की. आशा करता हूँ 'लावण्या' श्रृंख्ला की इस नवीन पेशकश पर भी आप पाठकों के प्रेम व आशीर्वाद की वर्षा होगी.
तो बस बने रहिये स्वप्निल सौंदर्य ई -ज़ीन के साथ और बनाइये अपनी ज़िंदगी को अपने सपनों की दुनिया.
- ऋषभ शुक्ला ( Rishabh Shukla )
संस्थापक -संपादक ( Founder-Editor )
~ लावण्या ~
गुरु -शिष्य परंपरा को जीवंत करतीं लावण्या : अनघा जोशी
नृत्य का इतिहास, मानव इतिहास जितना ही पुराना है । इसका का प्राचीनतम ग्रंथ भरत मुनि का नाट्यशास्त्र है। लेकिन इसके उल्लेख वेदों में भी मिलते हैं, जिससे पता चलता है कि प्रागैतिहासिक काल में नृत्य की खोज हो चुकी थी। इस काल में मानव जंगलों में स्वतंत्र विचरता था। धीरे-धीरे उसने समूह में पानी के स्रोतों और शिकार बहुल क्षेत्र में टिक कर रहना आरंभ किया- उस समय उसकी सर्वप्रथम समस्या भोजन की होती थी- जिसकी पूर्ति के बाद वह हर्षोल्लास के साथ उछल कूद कर आग के चारों ओर नृत्य किया करते थे। ये मानव विपदाओं से भयभीत हो जाते थे- जिनके निराकरण हेतु इन्होंने किसी अदृश्य दैविक शक्ति का अनुमान लगाया होगा तथा उसे प्रसन्न करने हेतु अनेकों उपायों का सहारा लिया- इन उपायों में से मानव ने नृत्य को अराधना का प्रमुख साधन बनाया।
इतिहास की दृष्टि में सबसे पहले उपलब्ध साक्ष्य गुफाओं में प्राप्त आदिमानव के उकेरे चित्रों तथा हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाईयों में प्राप्त मूर्तिया- हैं, जिनमें एक कांसे की बनी तन्वंगी की मूर्ति है- जिसकी समीक्षा करने वाले विद्वानों ने यह सिद्ध किया है कि यह नृत्य की भावभंगिमा से युक्त है। भारतीय नृत्य कला के इतिहास में- उत्खनन से प्राप्त यह नृत्यांगना की मूर्ति- प्रथम मूल्यवान उपलब्धि है जो आज भी दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी हुई है। हड़प्पा की खुदाई में भी एक काले पत्थर की नृत्यरत मूर्ति प्राप्त हुई है जिसके संबंध में पुरातत्वेत्ता मार्शल ने नर्तकी होने का दावा किया है।
सिन्धुघाटी की सभ्यता के पश्चात नृत्यकला के इतिहास में वैदिक काल का प्रवेश होता है। इस काल में चारों वेदों की रचना भी हुई। जो हमारी सभी कलात्मक विरासतों के मूल ग्रंथ माने भी जाते हैं। सबसे पहले ऋगवेद फिर क्रमशः यर्जुवेद, अर्थववेद, और सामवेद की आचार्यों एवं ऋषियों द्वारा इनकी स्थापना हुई। ऋग्वेद संसार के प्राचीनतम ग्रंथों में से एक है और इसमें नृत्य संबंधी सामग्री प्रचुर मात्रा में दृष्टिगोचर होती है।
नृत्य को उस युग में व्यायाम के रूप में माना गया था। शरीर को अरोग्य रखने के लिये नृत्यकला का प्रयोग किया जाता था। यह केवल 'नृत्त' ही था जिसका प्रयोग समाज में केवल आनंद के अवसरों पर किया जाता था। उपर्युक्त कथन से प्रमाणित होता है कि तांडव और लास्य के बीज वैदिक काल में थे। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वैदिक काल में नाट्य- नृत- नृत्य तथा तांडव- लास्य का बीजारोपण हो चुका था।
पुराणों में नृत्य के तत्व
हरिवंश पुराण- जैन धर्म से संबंधित इस पुराण में गुरू अष्टनेमि की लीलाओं एवं उनके समय की संस्कृति का चित्रण है। प्रस्तुत हरिवंश पुराण के रचयिता ने अपना परिचय भली प्रकार से देते हुए यह कृति शक संवत् ७०५ में समाप्त की थी। इसमें नृत्य संबंधी घटनाओं का उल्लेख है। भगवान नेमिनाथ के जन्म के समय के कलापूर्ण नृत्य व गायन के समारोहों का वर्णन इसमें मिलता है। हरिवंश पुराण में नाटक कला का भी उल्लेख है।
श्रीमदभागवत महापुराण- इसमें अनेकों स्थानों पर नृत्त- नृत्य का विस्तृत विवरण पाया गया है- साथ ही संगीत वाद्यों का और आहार्य एवं अभिनय एवं नाट्य का भी उदाहरण मिलता है। मंथन के समय जब शोभा की मूर्ति स्वयं लक्ष्मी प्रकट हुइंर् तब उस समय गंधर्वों ने मंगलमयी संगीत छेड़ा- नर्तकिया- नाच नाच कर गाने लगीं और शंख- प्रहर- मृदंग आदि बजने लगे।
तथा कृष्ण के विवरणों में तो राधा कृष्ण का कोई मिलन नृत्य संगीत के बिना पूर्ण ही नहीं होता। भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी और सेविकाएं- गोपिया- एक दूसरे की बा-ह में बा-ह डाले यमुना के पुलीन तट पर खड़ी हैं और कृष्ण आकर रासलीला प्रारंभ करते हैं। रास 'कथक' नृत्य का प्रारंभिक नृत्य है। उस युग में नृत्य गान वादन विधाएं शिक्षा के आवश्यक अंग थे- तथा गुरूकुल में इनकी विधिवत शिक्षा दी जाती थी।
शिव पुराण- शिव पुराण में भी नृत्य का उल्लेख कई विवरणों में पाया गया है। इसी प्रकार तेजस्वी तेजों में अग्रणी कांति धारण करने वाले शिव- सब पर शासन करने वाले - सबके जनक- प्रकाश स्वरूप प्रकाश देने को सतत- नृत्य करने वाले नृत्य को प्रिय मानने वाले हैं।
कूर्म पुराण- कूर्म पुराण में भी नृत्य का उल्लेख कई विवरणों में मिला है। जैसे 'गंधर्व- किन्नर- मुनि और सिद्ध स्तुति के प्रयोजन से नाचने लगे । अप्सराएँ मोहक नृत्य करने लगीं।'
रामायण व महाभारत काल में नृत्य
रामायण में भी नृत्य के तत्व मिलते हैं। भगवान राम के जन्म के समय- विवाहोत्सव में- राज्याभिषेक - विजयोत्सव आदि अवसरों पर नृत्य समारोहों का विवरण मिलता है।
महाभारत में भी समय-समय पर नृत्य पाया गया है। इस युग में आकर नृत्त- नृत्य- नाट्य तीनों का विकास हो चुका था।
भरतमुनि काल में नृत्य
भरत के नाट्य शास्त्र के समय तक भारतीय समाज में कई प्रकार की कलाओं का पूर्णरूपेण विकास हो चुका था। जन साधारण की रुचि कलाओं में इतनी अधिक बढ़ गई थी कि तत्कालीन प्रशासनों में यदा-कदा यह भय व्याप्त हो जाता कि लोग कहीं अपने कार्य छोड़ मात्र कलाओं तथा आमोद प्रमोद में ही न वक्त गुज़ारने लगे सो इन पर कभी-कभी प्रतिबंध भी लग जाता था। भरत मुनि ने नाट्य कला को अपना लक्ष्य बना कर उसी के विकास के लिये नाट्य शास्त्र की अत्यंत उपयोगी और पूर्णत- व्यवहारिक विवेचनात्मक रचना की- जो कि आज इतने समय बाद भी नाट्य-नृत्य कला के लिये उतना ही उपयोगी ग्रंथ है जितना कि तब रहा होगा- यह सारे शास्त्रीय नृत्यों की रीढ़ है। नाट्यशास्त्र को ही इस कला का प्रथम उपलब्ध ग्रंथ मान गया है। यह महा ग्रंथ न केवल नाट्य कला अपितु नृत्य- संगीत- अलंकार शास्त्र- छंद शास्त्र आदि अनेक विषयों का आदिम ग्रंथ है- इसलिये इसे पंचमवेद कह कर सम्मानित किया गया है। भरत मुनि का नृत्य जगत में यह योगदान बहुमूल्य है। इसके बाद संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों जैसे कालिदास के शाकुंतलम- मेघदूतम- वात्सयायन की कामसूत्र- तथा मृच्छकटिकम आदि ग्रंथों में इन नृत्य का विवरण हमारी भारतीय संस्कृति की कलाप्रियता को दर्शाता है- जो कि आज भी अक्षुण्ण है।
आधुनिक काल में नृत्य
आज भी हमारे समाज में नृत्य- संगीत को उतना ही महत्व दिया जाता है कि हमारे कोई भी समारोह नृत्य के बिना संपूर्ण नहीं होते । भारत के विविध शास्त्रीय नृत्यों की अनवरत शिष्य परंपराएँ हमारी इस सांस्कृतिक विरासत की धारा को लगातार पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित करती रहेंगी।
भरतनाट्यम , आठ भारतीय शास्त्रीय नृत्यों में से एक है. यह केवल दक्षिण भारत ही नहीं अपितु उत्तर भारत में भी एक लोकप्रिय शास्त्रीय नृत्य है. इसका संबंध देवदासियों से रहा है और उन्हीं के कारण यह आज हमें अपने मूल रुप में प्राप्त हो चुका है .कहते हैं कि दक्षिण भारत , उत्तर भारत के असमान बाहरी आक्रमणों से सुरक्षित रहा . अत न तो वहाँ की संगीत पर बाहरी प्रभाव पड़ा और न ही इसे बदला गया .इसलिए भरतनाट्यम की प्राचीन प्रणाली अब भी देखने को मिलती है. इस नृत्य में मुद्राओं का बाहुल्य है .इसमें बिखरी हुई कुछ कथा वस्तु भी मिलती है पर कथक के समान कथानक नहीं होता. इसमें नृत्यकार अकेले अथवा 3- 5 के समूह में नृत्य करता है.भरतनाट्यम नृत्य में मृदंगम से संगति की जाती है और साथ में कर्नाटकी गीत गाते हैं या वाद्यों पर कर्नाटक संगीत की धुनें बजाई जाती हैं. इस नृत्य को मोटे तौर से सात भागों में बाँटा जा सकता है, जिन्हें चरण कहते हैं.इसके क्रम का प्रकार निम्नलिखित है :-
1. अल्लारिपु
2. जेथीस्वरम
3.शब्दम
4.वर्णम
5.पदम
6.तिल्लाना
7.श्लोकम
इसके अतिरिक्त भरतनाट्यम नृत्य में पाँच आसन होते हैं :- पदम, सृष्टि , योग , वीर और सिद्ध्. घुटने के मोड़ चार तरह के माने गए हैं :- मन्ड्ला , अर्धमन्डला, सममन्डला और नृत्तमन्डला. इसमें 3 पाद विक्षेप होते हैं :- अंचित, कुंचित , उर्धांचित व गति के चार प्रकार होते हैं करण, अंगहार ,रेचक और पिंडीवध .
भरतनाट्यम नृ्त्य के विशिष्ट क्षेत्र में जहाँ अनेकों नृ्त्यांगनाएं एवं नर्तक अपनी सफल भागीदारी दर्ज करा रहे हैं वहीं एक नाम , सूर्य के प्रकाश की भाँति उभर कर सामने आता है , जिन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर भरतनाट्यम नृ्त्य के रुप में भारतीय संस्कृ्ति की अनमोल विरासत को संजो कर रखा है और इसे बढ़ावा व प्रोत्साहन देने के लिए अनेकों कार्य भी किए हैं. हम बात कर रहे हैं, अद्वितीय प्रतिभा की धनी भरतनाट्यम नृ्त्यांगना अनघा जोशी (BHARATANATYAM DANCER ANAGHA JOSHI ) की.
लावण्य, सौंदर्य और बेमिसाल प्रतिभा का दूसरा नाम अनघा जोशी (BHARATANATYAM DANCER ANAGHA JOSHI ) को कहना अनुपयुक्त न होगा.
कला व कलाकार रंग, वर्ण, लिंग, जाति, धर्म आदि से ऊपर होता है व इन सभी शब्दों से परे अपनी कला के क्षेत्र में लीन रहता है . कला किसी भी रुप में हो , चाहे संगीत कला, चित्र कला या नृत्य कला , एक कलाकार अपनी कला की साधना कर , उसमें लीन होकर ईश्वर से जुड़ जाता है जिसके परिणामस्वरुप वह मानव दुनिया की संकीर्ण मानसिकता से परे अपना अतुल्नीय मुकाम बनाता है .
अनघा जोशी के नृ्त्य में इनके हाथों का संतुलित घुमाव, पद संचालन, अंग आदि के बेमिसाल प्रदर्शन द्वारा इनके अपार कौशल का परिचय स्वत: ही मिल जाता है. दर्शक गण उनके लाजवाब एवं सौंदर्यपरक भावों व अंदाज़ को देख , इनकी नृ्त्य कला के सम्मोहन में बँधते चले जाते हैं. यह इनकी प्रभावशाली व बेहतरीन नृ्त्य कला का ही कमाल है कि भरतनाट्यम जैसे जटिल नृत्य को अनघा जिस सहजता से पेश करती हैं , उससे भरतनाटयम नृ्त्य के क्षेत्र में उनकी गहरी तालीम उजागर होती है. जिस खूबसूरती व सहजता से अनघा जोशी अपने नृ्त्य में अंग संचालन, पाद- विक्षेप, नेत्र एवं भौं संचालन का समावेश करती हैं , वह इनके नृ्त्य को अपार सौंदर्य से भर अत्यंत प्रभावशाली , अतुल्नीय , आकर्षक व मनमोहक बनाता है.
अनघा जोशी की पारिवारिक पृष्ठभूमि कला क्षेत्र से संबंधित नहीं ,इस कारण उन्हें भरतनाट्यम नृत्य के क्षेत्र में अपनी पहचान स्थापित करने के लिए काफी संघर्षों का सामना करना पड़ा. परंतु कहा जाता है कि जहाँ चाह है वहाँ राह है और इसका ज्वलंत उदाहरण हैं अनघा जोशी .
अनघा वर्तमान समय में पुणे की एक प्रतिष्ठित कंपनी में सॉफ्ट्वेयर इंजीनियर के पद पर कार्यरत हैं और भरतनाटयम नृत्यांगना व शिक्षिका के रुप में भारतीय शास्त्रीय नृत्य कला के क्षेत्र में अपनी सफल भागीदारी दर्ज करा रही हैं.
अनघा का कहना है कि आधुनिक परिवेश में लोगों की शास्त्रीय नृत्य कला के क्षेत्र में उदासीनता देखने को मिलती है जो सही नहीं है . शास्त्रीय नृत्य न सिर्फ आपके व्यक्तित्व को निखारता है , बल्कि भारतीय संस्कृति से हमें जोड़े भी रखता है. शास्त्रीय नृत्य के रुप में भारत की अनमोल विरासत को जीवंत रखने हेतु अनघा पुणे में 'कलाधारा नृत्यालय' (KALADHARA NRUTYALAY ) नामक एक संस्थान चला रही हैं . कलाधारा नृत्यालय ,उन सभी कला प्रेमियों के लिए खुला है जो हमारी परंपराओं व हमारे गौरवशाली इतिहास को दर्शाती शास्त्रीय नृत्य कला को सीखने व आत्मसात करने के इच्छुक हैं.
इसके अतिरिक्त अनघा नाट्यशास्त्र को मराठी भाषा में उपलब्ध कराने हेतु प्रयासरत हैं. अनघा के अनुसार नाट्यशास्त्र अभी कुछ क्षेत्रीय भाषाओं में ही उपलब्ध है . संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा में उपलब्ध इसकी कृतियां हर किसी की समझ से परे हैं .नाट्यशास्त्र एक अनमोल ग्रंथ है .अत: इसका मराठी भाषा में प्रकाशन मराठी भाषा के जानकारों के लिए फुहार की भांति होगा.
भरतनाटयम नृत्य के क्षेत्र में अपने बेमिसाल प्रदर्शन के कारण अनघा 'नंद्कुमार नृत्य रत्न अवार्ड' ,'नाटयश्री पुरस्कार' ,'तरंग पद्म अवार्ड' आदि जैसे अनेकों पुरस्कार व सम्मान प्राप्त कर चुकीहैं.
अनघा , नृत्य के क्षेत्र में अपने अब तक के शानदार सफ़र का श्रेय अपनी गुरु, आविष्कार नृत्य विद्यालय , पुणे की संस्थापक -निदेशक श्रीमती रचना ताई कापसे को देती हैं. अनघा का कहना है कि 16 वर्षों में उनकी गुरु से उन्होंने न सिर्फ शास्त्रीय नृत्य की बारीकियां सीखीं बल्कि भारतीय संस्कृति,परंपराओं व हमारी विरासत को खूबसूरती से संजोने का हुनर भी सीखा है.
रचना ताई ने 'आविष्कार नृत्य विद्यालय' की शुरुआत 1993 में पुणे,महाराष्ट्र में सिर्फ चार छात्रों के साथ की थी .आज हज़ारों की संख्या में विभिन्न क्षेत्रों से छात्र रचना ताई से शास्त्रीय नृत्य की विधिवत शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं. रचना ताई को नृत्य के क्षेत्र में उनके गौरवशाली व अभूतपूर्व योगदान के लिए 'आदर्श शिक्षक पुरस्कार' व 'कलाउपासक पुरस्कार' आदि से सम्मानित किया जा चुका है.
अपनी गुरु के बारे में अनघा का कहना है , "रचना ताई के साथ अपने सफर को याद करती हूँ तो पाती हूँ कि उन्होंने मेरी पूरी ज़िंदगी बदल दी , उन्होंने मुझे न सिर्फ नृत्य की बारीकियों से अवगत कराया बल्कि जीवन का नज़रिया, हमारे कर्म,हमारी ज़िम्मेदारियों और दूसरों को सम्मान देने की अनमोल कला का भी मुझे उपहार दिया . रचना ताई के साथ पिछले 16 वर्षों में शायद ही कोई क्षण ऐसे हो जिसमे मैंने उन्हें कुछ कलात्मक करते हुए न देखा हो. अपनी गुरु से मुझे वो सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है जिससे मुझे मेरे स्वप्नों को हकीकत में तब्दील करने की प्रेरणा मिलती है. मेरी गुरु मेरी प्रेरणा है. उन्होंने मुझे माँ का प्यार दिया . रचना ताई में मैं,अपनी गुरु, अपनी माँ, अपनी दोस्त और अपनी प्रेरणा को देखती हूँ . शुक्रिया बहुत छोटा शब्द है फिर भी यदि न बोला तो बेइमानी होगी ...रचना ताई ! आपका बहुत बहुत शुक्रिया.
वाकई , जहाँ आज के आधुनिक समय में शिक्षा , विद्यालयों आदि के स्तर में गिरावट आने के साथ साथ, गुरु के पद पर आसीन शिक्षकों ने भी शिक्षा का व्यापारीकरण कर डाला है , जो बेहद शर्मसार कर देने वाला काला सच है वहीं अनघा जोशी का अपनी गुरु रचना ताई जी के लिए सम्मान सराहनीय है और रचना ताई का अनघा के प्रति प्रेम व समर्पण ,गुरु -शिष्य की अनुपम मिसाल बनकर सामने आता है. गुरु -शिष्य के मध्य किस प्रकार का सम्मान, प्रेम व समर्पण होना चाहिये , प्रत्येक व्यक्ति को अनघा व रचना कापसे जी से इसकी प्रेरणा लेनी चाहिये.
भरतनाट्यम नृत्यांगना अनघा जोशी (BHARATANATYAM DANCER ANAGHA JOSHI ) के विलक्षण व्यक्तित्व को व उनकी प्रतिभा को बयां करने में शब्द शायद कम पड़ जाएं . पता नहीं स्वप्निल सौंदर्य ई-ज़ीन के विशेष कॉलम के ज़रिये अनघा जोशी ) को आप सभी पाठकों के कितना निकट ला पाया हूँ . भरतनाट्यम नृत्यांगना अनघा जोशी (BHARATANATYAM DANCER ANAGHA JOSHI ) के व्यक्तित्व व भरतनाट्यम नृ्त्य के क्षेत्र में उनके योगदान के बारे में लिखते हुए ऐसा महसूस हुआ कि अनघा जी का नृ्त्य के प्रति समर्पण अदभुत है . अपने में खो जाना ही तो , कभी किसी का हो जाना है ...... भरतनाट्यम नृत्यांगना अनघा जोशी ने नृ्त्य कला को अपने व्यक्तित्व में इस प्रकार समा लिया है और उसमें खो के वे नृ्त्य की एक बेहतरीन व प्रतिभावान पर्याय बन गई हैं. स्वप्निल सौंदर्य ई-ज़ीन टीम की ओर से भरतनाट्यम नृत्यांगना अनघा जोशी जी को ढेर सारी शुभकामनाएं व आभार .
गुरु -शिष्य परंपरा को जीवंत करतीं लावण्या : अनघा जोशी
नृत्य का इतिहास, मानव इतिहास जितना ही पुराना है । इसका का प्राचीनतम ग्रंथ भरत मुनि का नाट्यशास्त्र है। लेकिन इसके उल्लेख वेदों में भी मिलते हैं, जिससे पता चलता है कि प्रागैतिहासिक काल में नृत्य की खोज हो चुकी थी। इस काल में मानव जंगलों में स्वतंत्र विचरता था। धीरे-धीरे उसने समूह में पानी के स्रोतों और शिकार बहुल क्षेत्र में टिक कर रहना आरंभ किया- उस समय उसकी सर्वप्रथम समस्या भोजन की होती थी- जिसकी पूर्ति के बाद वह हर्षोल्लास के साथ उछल कूद कर आग के चारों ओर नृत्य किया करते थे। ये मानव विपदाओं से भयभीत हो जाते थे- जिनके निराकरण हेतु इन्होंने किसी अदृश्य दैविक शक्ति का अनुमान लगाया होगा तथा उसे प्रसन्न करने हेतु अनेकों उपायों का सहारा लिया- इन उपायों में से मानव ने नृत्य को अराधना का प्रमुख साधन बनाया।
इतिहास की दृष्टि में सबसे पहले उपलब्ध साक्ष्य गुफाओं में प्राप्त आदिमानव के उकेरे चित्रों तथा हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाईयों में प्राप्त मूर्तिया- हैं, जिनमें एक कांसे की बनी तन्वंगी की मूर्ति है- जिसकी समीक्षा करने वाले विद्वानों ने यह सिद्ध किया है कि यह नृत्य की भावभंगिमा से युक्त है। भारतीय नृत्य कला के इतिहास में- उत्खनन से प्राप्त यह नृत्यांगना की मूर्ति- प्रथम मूल्यवान उपलब्धि है जो आज भी दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी हुई है। हड़प्पा की खुदाई में भी एक काले पत्थर की नृत्यरत मूर्ति प्राप्त हुई है जिसके संबंध में पुरातत्वेत्ता मार्शल ने नर्तकी होने का दावा किया है।
सिन्धुघाटी की सभ्यता के पश्चात नृत्यकला के इतिहास में वैदिक काल का प्रवेश होता है। इस काल में चारों वेदों की रचना भी हुई। जो हमारी सभी कलात्मक विरासतों के मूल ग्रंथ माने भी जाते हैं। सबसे पहले ऋगवेद फिर क्रमशः यर्जुवेद, अर्थववेद, और सामवेद की आचार्यों एवं ऋषियों द्वारा इनकी स्थापना हुई। ऋग्वेद संसार के प्राचीनतम ग्रंथों में से एक है और इसमें नृत्य संबंधी सामग्री प्रचुर मात्रा में दृष्टिगोचर होती है।
नृत्य को उस युग में व्यायाम के रूप में माना गया था। शरीर को अरोग्य रखने के लिये नृत्यकला का प्रयोग किया जाता था। यह केवल 'नृत्त' ही था जिसका प्रयोग समाज में केवल आनंद के अवसरों पर किया जाता था। उपर्युक्त कथन से प्रमाणित होता है कि तांडव और लास्य के बीज वैदिक काल में थे। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वैदिक काल में नाट्य- नृत- नृत्य तथा तांडव- लास्य का बीजारोपण हो चुका था।
पुराणों में नृत्य के तत्व
हरिवंश पुराण- जैन धर्म से संबंधित इस पुराण में गुरू अष्टनेमि की लीलाओं एवं उनके समय की संस्कृति का चित्रण है। प्रस्तुत हरिवंश पुराण के रचयिता ने अपना परिचय भली प्रकार से देते हुए यह कृति शक संवत् ७०५ में समाप्त की थी। इसमें नृत्य संबंधी घटनाओं का उल्लेख है। भगवान नेमिनाथ के जन्म के समय के कलापूर्ण नृत्य व गायन के समारोहों का वर्णन इसमें मिलता है। हरिवंश पुराण में नाटक कला का भी उल्लेख है।
श्रीमदभागवत महापुराण- इसमें अनेकों स्थानों पर नृत्त- नृत्य का विस्तृत विवरण पाया गया है- साथ ही संगीत वाद्यों का और आहार्य एवं अभिनय एवं नाट्य का भी उदाहरण मिलता है। मंथन के समय जब शोभा की मूर्ति स्वयं लक्ष्मी प्रकट हुइंर् तब उस समय गंधर्वों ने मंगलमयी संगीत छेड़ा- नर्तकिया- नाच नाच कर गाने लगीं और शंख- प्रहर- मृदंग आदि बजने लगे।
तथा कृष्ण के विवरणों में तो राधा कृष्ण का कोई मिलन नृत्य संगीत के बिना पूर्ण ही नहीं होता। भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी और सेविकाएं- गोपिया- एक दूसरे की बा-ह में बा-ह डाले यमुना के पुलीन तट पर खड़ी हैं और कृष्ण आकर रासलीला प्रारंभ करते हैं। रास 'कथक' नृत्य का प्रारंभिक नृत्य है। उस युग में नृत्य गान वादन विधाएं शिक्षा के आवश्यक अंग थे- तथा गुरूकुल में इनकी विधिवत शिक्षा दी जाती थी।
शिव पुराण- शिव पुराण में भी नृत्य का उल्लेख कई विवरणों में पाया गया है। इसी प्रकार तेजस्वी तेजों में अग्रणी कांति धारण करने वाले शिव- सब पर शासन करने वाले - सबके जनक- प्रकाश स्वरूप प्रकाश देने को सतत- नृत्य करने वाले नृत्य को प्रिय मानने वाले हैं।
कूर्म पुराण- कूर्म पुराण में भी नृत्य का उल्लेख कई विवरणों में मिला है। जैसे 'गंधर्व- किन्नर- मुनि और सिद्ध स्तुति के प्रयोजन से नाचने लगे । अप्सराएँ मोहक नृत्य करने लगीं।'
रामायण व महाभारत काल में नृत्य
रामायण में भी नृत्य के तत्व मिलते हैं। भगवान राम के जन्म के समय- विवाहोत्सव में- राज्याभिषेक - विजयोत्सव आदि अवसरों पर नृत्य समारोहों का विवरण मिलता है।
महाभारत में भी समय-समय पर नृत्य पाया गया है। इस युग में आकर नृत्त- नृत्य- नाट्य तीनों का विकास हो चुका था।
भरतमुनि काल में नृत्य
भरत के नाट्य शास्त्र के समय तक भारतीय समाज में कई प्रकार की कलाओं का पूर्णरूपेण विकास हो चुका था। जन साधारण की रुचि कलाओं में इतनी अधिक बढ़ गई थी कि तत्कालीन प्रशासनों में यदा-कदा यह भय व्याप्त हो जाता कि लोग कहीं अपने कार्य छोड़ मात्र कलाओं तथा आमोद प्रमोद में ही न वक्त गुज़ारने लगे सो इन पर कभी-कभी प्रतिबंध भी लग जाता था। भरत मुनि ने नाट्य कला को अपना लक्ष्य बना कर उसी के विकास के लिये नाट्य शास्त्र की अत्यंत उपयोगी और पूर्णत- व्यवहारिक विवेचनात्मक रचना की- जो कि आज इतने समय बाद भी नाट्य-नृत्य कला के लिये उतना ही उपयोगी ग्रंथ है जितना कि तब रहा होगा- यह सारे शास्त्रीय नृत्यों की रीढ़ है। नाट्यशास्त्र को ही इस कला का प्रथम उपलब्ध ग्रंथ मान गया है। यह महा ग्रंथ न केवल नाट्य कला अपितु नृत्य- संगीत- अलंकार शास्त्र- छंद शास्त्र आदि अनेक विषयों का आदिम ग्रंथ है- इसलिये इसे पंचमवेद कह कर सम्मानित किया गया है। भरत मुनि का नृत्य जगत में यह योगदान बहुमूल्य है। इसके बाद संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों जैसे कालिदास के शाकुंतलम- मेघदूतम- वात्सयायन की कामसूत्र- तथा मृच्छकटिकम आदि ग्रंथों में इन नृत्य का विवरण हमारी भारतीय संस्कृति की कलाप्रियता को दर्शाता है- जो कि आज भी अक्षुण्ण है।
आधुनिक काल में नृत्य
आज भी हमारे समाज में नृत्य- संगीत को उतना ही महत्व दिया जाता है कि हमारे कोई भी समारोह नृत्य के बिना संपूर्ण नहीं होते । भारत के विविध शास्त्रीय नृत्यों की अनवरत शिष्य परंपराएँ हमारी इस सांस्कृतिक विरासत की धारा को लगातार पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित करती रहेंगी।
भरतनाट्यम , आठ भारतीय शास्त्रीय नृत्यों में से एक है. यह केवल दक्षिण भारत ही नहीं अपितु उत्तर भारत में भी एक लोकप्रिय शास्त्रीय नृत्य है. इसका संबंध देवदासियों से रहा है और उन्हीं के कारण यह आज हमें अपने मूल रुप में प्राप्त हो चुका है .कहते हैं कि दक्षिण भारत , उत्तर भारत के असमान बाहरी आक्रमणों से सुरक्षित रहा . अत न तो वहाँ की संगीत पर बाहरी प्रभाव पड़ा और न ही इसे बदला गया .इसलिए भरतनाट्यम की प्राचीन प्रणाली अब भी देखने को मिलती है. इस नृत्य में मुद्राओं का बाहुल्य है .इसमें बिखरी हुई कुछ कथा वस्तु भी मिलती है पर कथक के समान कथानक नहीं होता. इसमें नृत्यकार अकेले अथवा 3- 5 के समूह में नृत्य करता है.भरतनाट्यम नृत्य में मृदंगम से संगति की जाती है और साथ में कर्नाटकी गीत गाते हैं या वाद्यों पर कर्नाटक संगीत की धुनें बजाई जाती हैं. इस नृत्य को मोटे तौर से सात भागों में बाँटा जा सकता है, जिन्हें चरण कहते हैं.इसके क्रम का प्रकार निम्नलिखित है :-
1. अल्लारिपु
2. जेथीस्वरम
3.शब्दम
4.वर्णम
5.पदम
6.तिल्लाना
7.श्लोकम
इसके अतिरिक्त भरतनाट्यम नृत्य में पाँच आसन होते हैं :- पदम, सृष्टि , योग , वीर और सिद्ध्. घुटने के मोड़ चार तरह के माने गए हैं :- मन्ड्ला , अर्धमन्डला, सममन्डला और नृत्तमन्डला. इसमें 3 पाद विक्षेप होते हैं :- अंचित, कुंचित , उर्धांचित व गति के चार प्रकार होते हैं करण, अंगहार ,रेचक और पिंडीवध .
भरतनाट्यम नृ्त्य के विशिष्ट क्षेत्र में जहाँ अनेकों नृ्त्यांगनाएं एवं नर्तक अपनी सफल भागीदारी दर्ज करा रहे हैं वहीं एक नाम , सूर्य के प्रकाश की भाँति उभर कर सामने आता है , जिन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर भरतनाट्यम नृ्त्य के रुप में भारतीय संस्कृ्ति की अनमोल विरासत को संजो कर रखा है और इसे बढ़ावा व प्रोत्साहन देने के लिए अनेकों कार्य भी किए हैं. हम बात कर रहे हैं, अद्वितीय प्रतिभा की धनी भरतनाट्यम नृ्त्यांगना अनघा जोशी (BHARATANATYAM DANCER ANAGHA JOSHI ) की.
लावण्य, सौंदर्य और बेमिसाल प्रतिभा का दूसरा नाम अनघा जोशी (BHARATANATYAM DANCER ANAGHA JOSHI ) को कहना अनुपयुक्त न होगा.
कला व कलाकार रंग, वर्ण, लिंग, जाति, धर्म आदि से ऊपर होता है व इन सभी शब्दों से परे अपनी कला के क्षेत्र में लीन रहता है . कला किसी भी रुप में हो , चाहे संगीत कला, चित्र कला या नृत्य कला , एक कलाकार अपनी कला की साधना कर , उसमें लीन होकर ईश्वर से जुड़ जाता है जिसके परिणामस्वरुप वह मानव दुनिया की संकीर्ण मानसिकता से परे अपना अतुल्नीय मुकाम बनाता है .
अनघा जोशी के नृ्त्य में इनके हाथों का संतुलित घुमाव, पद संचालन, अंग आदि के बेमिसाल प्रदर्शन द्वारा इनके अपार कौशल का परिचय स्वत: ही मिल जाता है. दर्शक गण उनके लाजवाब एवं सौंदर्यपरक भावों व अंदाज़ को देख , इनकी नृ्त्य कला के सम्मोहन में बँधते चले जाते हैं. यह इनकी प्रभावशाली व बेहतरीन नृ्त्य कला का ही कमाल है कि भरतनाट्यम जैसे जटिल नृत्य को अनघा जिस सहजता से पेश करती हैं , उससे भरतनाटयम नृ्त्य के क्षेत्र में उनकी गहरी तालीम उजागर होती है. जिस खूबसूरती व सहजता से अनघा जोशी अपने नृ्त्य में अंग संचालन, पाद- विक्षेप, नेत्र एवं भौं संचालन का समावेश करती हैं , वह इनके नृ्त्य को अपार सौंदर्य से भर अत्यंत प्रभावशाली , अतुल्नीय , आकर्षक व मनमोहक बनाता है.
अनघा जोशी की पारिवारिक पृष्ठभूमि कला क्षेत्र से संबंधित नहीं ,इस कारण उन्हें भरतनाट्यम नृत्य के क्षेत्र में अपनी पहचान स्थापित करने के लिए काफी संघर्षों का सामना करना पड़ा. परंतु कहा जाता है कि जहाँ चाह है वहाँ राह है और इसका ज्वलंत उदाहरण हैं अनघा जोशी .
अनघा वर्तमान समय में पुणे की एक प्रतिष्ठित कंपनी में सॉफ्ट्वेयर इंजीनियर के पद पर कार्यरत हैं और भरतनाटयम नृत्यांगना व शिक्षिका के रुप में भारतीय शास्त्रीय नृत्य कला के क्षेत्र में अपनी सफल भागीदारी दर्ज करा रही हैं.
अनघा का कहना है कि आधुनिक परिवेश में लोगों की शास्त्रीय नृत्य कला के क्षेत्र में उदासीनता देखने को मिलती है जो सही नहीं है . शास्त्रीय नृत्य न सिर्फ आपके व्यक्तित्व को निखारता है , बल्कि भारतीय संस्कृति से हमें जोड़े भी रखता है. शास्त्रीय नृत्य के रुप में भारत की अनमोल विरासत को जीवंत रखने हेतु अनघा पुणे में 'कलाधारा नृत्यालय' (KALADHARA NRUTYALAY ) नामक एक संस्थान चला रही हैं . कलाधारा नृत्यालय ,उन सभी कला प्रेमियों के लिए खुला है जो हमारी परंपराओं व हमारे गौरवशाली इतिहास को दर्शाती शास्त्रीय नृत्य कला को सीखने व आत्मसात करने के इच्छुक हैं.
इसके अतिरिक्त अनघा नाट्यशास्त्र को मराठी भाषा में उपलब्ध कराने हेतु प्रयासरत हैं. अनघा के अनुसार नाट्यशास्त्र अभी कुछ क्षेत्रीय भाषाओं में ही उपलब्ध है . संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा में उपलब्ध इसकी कृतियां हर किसी की समझ से परे हैं .नाट्यशास्त्र एक अनमोल ग्रंथ है .अत: इसका मराठी भाषा में प्रकाशन मराठी भाषा के जानकारों के लिए फुहार की भांति होगा.
भरतनाटयम नृत्य के क्षेत्र में अपने बेमिसाल प्रदर्शन के कारण अनघा 'नंद्कुमार नृत्य रत्न अवार्ड' ,'नाटयश्री पुरस्कार' ,'तरंग पद्म अवार्ड' आदि जैसे अनेकों पुरस्कार व सम्मान प्राप्त कर चुकीहैं.
अनघा , नृत्य के क्षेत्र में अपने अब तक के शानदार सफ़र का श्रेय अपनी गुरु, आविष्कार नृत्य विद्यालय , पुणे की संस्थापक -निदेशक श्रीमती रचना ताई कापसे को देती हैं. अनघा का कहना है कि 16 वर्षों में उनकी गुरु से उन्होंने न सिर्फ शास्त्रीय नृत्य की बारीकियां सीखीं बल्कि भारतीय संस्कृति,परंपराओं व हमारी विरासत को खूबसूरती से संजोने का हुनर भी सीखा है.
रचना ताई ने 'आविष्कार नृत्य विद्यालय' की शुरुआत 1993 में पुणे,महाराष्ट्र में सिर्फ चार छात्रों के साथ की थी .आज हज़ारों की संख्या में विभिन्न क्षेत्रों से छात्र रचना ताई से शास्त्रीय नृत्य की विधिवत शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं. रचना ताई को नृत्य के क्षेत्र में उनके गौरवशाली व अभूतपूर्व योगदान के लिए 'आदर्श शिक्षक पुरस्कार' व 'कलाउपासक पुरस्कार' आदि से सम्मानित किया जा चुका है.
अपनी गुरु के बारे में अनघा का कहना है , "रचना ताई के साथ अपने सफर को याद करती हूँ तो पाती हूँ कि उन्होंने मेरी पूरी ज़िंदगी बदल दी , उन्होंने मुझे न सिर्फ नृत्य की बारीकियों से अवगत कराया बल्कि जीवन का नज़रिया, हमारे कर्म,हमारी ज़िम्मेदारियों और दूसरों को सम्मान देने की अनमोल कला का भी मुझे उपहार दिया . रचना ताई के साथ पिछले 16 वर्षों में शायद ही कोई क्षण ऐसे हो जिसमे मैंने उन्हें कुछ कलात्मक करते हुए न देखा हो. अपनी गुरु से मुझे वो सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है जिससे मुझे मेरे स्वप्नों को हकीकत में तब्दील करने की प्रेरणा मिलती है. मेरी गुरु मेरी प्रेरणा है. उन्होंने मुझे माँ का प्यार दिया . रचना ताई में मैं,अपनी गुरु, अपनी माँ, अपनी दोस्त और अपनी प्रेरणा को देखती हूँ . शुक्रिया बहुत छोटा शब्द है फिर भी यदि न बोला तो बेइमानी होगी ...रचना ताई ! आपका बहुत बहुत शुक्रिया.
वाकई , जहाँ आज के आधुनिक समय में शिक्षा , विद्यालयों आदि के स्तर में गिरावट आने के साथ साथ, गुरु के पद पर आसीन शिक्षकों ने भी शिक्षा का व्यापारीकरण कर डाला है , जो बेहद शर्मसार कर देने वाला काला सच है वहीं अनघा जोशी का अपनी गुरु रचना ताई जी के लिए सम्मान सराहनीय है और रचना ताई का अनघा के प्रति प्रेम व समर्पण ,गुरु -शिष्य की अनुपम मिसाल बनकर सामने आता है. गुरु -शिष्य के मध्य किस प्रकार का सम्मान, प्रेम व समर्पण होना चाहिये , प्रत्येक व्यक्ति को अनघा व रचना कापसे जी से इसकी प्रेरणा लेनी चाहिये.
भरतनाट्यम नृत्यांगना अनघा जोशी (BHARATANATYAM DANCER ANAGHA JOSHI ) के विलक्षण व्यक्तित्व को व उनकी प्रतिभा को बयां करने में शब्द शायद कम पड़ जाएं . पता नहीं स्वप्निल सौंदर्य ई-ज़ीन के विशेष कॉलम के ज़रिये अनघा जोशी ) को आप सभी पाठकों के कितना निकट ला पाया हूँ . भरतनाट्यम नृत्यांगना अनघा जोशी (BHARATANATYAM DANCER ANAGHA JOSHI ) के व्यक्तित्व व भरतनाट्यम नृ्त्य के क्षेत्र में उनके योगदान के बारे में लिखते हुए ऐसा महसूस हुआ कि अनघा जी का नृ्त्य के प्रति समर्पण अदभुत है . अपने में खो जाना ही तो , कभी किसी का हो जाना है ...... भरतनाट्यम नृत्यांगना अनघा जोशी ने नृ्त्य कला को अपने व्यक्तित्व में इस प्रकार समा लिया है और उसमें खो के वे नृ्त्य की एक बेहतरीन व प्रतिभावान पर्याय बन गई हैं. स्वप्निल सौंदर्य ई-ज़ीन टीम की ओर से भरतनाट्यम नृत्यांगना अनघा जोशी जी को ढेर सारी शुभकामनाएं व आभार .
- ऋषभ शुक्ला ( Rishabh Shukla )
( संस्थापक - संपादक { Founder-Editor } )
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